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मात्मा मोहनीयादि कर्मों का क्षय कर पूर्ण वीतराग बन जाती है।
वीतराग बन जाने के बाद उस महान आत्मा को संसार के पदार्थों के प्रति न तो राग होता है और न ही द्वेष ।
ज्ञानावरणीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय हो जाने से वे परमात्मा सर्वज्ञ बन जाते हैं। उन्हें जगत् के समस्त पदार्थों की समस्त पर्यायों का साक्षात् ज्ञान होता है। वे सम्पूर्ण जगत् को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष देखते हैं।
ऐसे वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा को धन्य हो, जो अपने निर्मल ज्ञान के द्वारा भव्यात्माओं को मोक्षमार्ग प्रदर्शित करते हैं।
तीर्थंकर परमात्मा को 'शक्र-स्तव' के अन्तर्गत 'गन्धहस्ती' की उपमा दी गई है। जिस प्रकार गन्धहस्ती के आगमन के साथ अन्य हस्ती दूर-सुदूर पलायन कर जाते हैं, उसी प्रकार तीर्थंकर परमात्मा जहाँ-जहाँ विचरते हैं, वहाँ से मारी, मरकी, रोग, शोक, दुष्काल आदि सभी उपद्रव दूर हो जाते हैं।
तीर्थंकर परमात्मा को जन्म से ही साहजिक वैराग्य होता है। पूर्व के तीसरे भव में तीर्थंकर नामकर्म निकाचित करने के बाद जब वे देव के भव में होते हैं, तब देवलोक की दिव्य समृद्धि में भी उनकी आत्मा जल-कमलवत् सर्वथा अलिप्त रहती है। संसार के दिव्य सुखों में उन्हें लेश भी राग नहीं होता है। अन्तिम भव में ही धन-धान्य व राज्य समृद्धि से समृद्ध होने पर भी उनका मन वैराग्यरंग से इतना अधिक रंजित होता है कि भोगावली कर्म के उदय से संसार के दिव्य सुख भोगते हुए भी
शान्त सुधारस विवेचन-१५४