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४. माध्यस्थ्य भावना-अपने तोव्रतम पापोदय के कारण कई प्रात्माओं को धर्म के प्रति रुचि नहीं होती है। वे अत्यन्त निर्दय, क्रूर और कठोर होती हैं, उनको धर्मोपदेश देना सर्प को दूध पिलाने तुल्य होता है।
अतः ऐसी पापात्माओं के प्रति जिनको धर्मोपदेश देना भी व्यर्थ है, अपने हृदय में माध्यस्थ्य भावना होनी चाहिये । अर्थात् ऐसी पापी आत्माओं के प्रति भी हमारे हृदय में द्वेष भाव नहीं माना चाहिये, बल्कि उनके प्रति मध्यस्थ भाव धारण करना चाहिये।
सर्वत्र मैत्रीमुपकल्पयात्मन् !
चिन्त्यो जगत्यत्र न कोऽपि शत्रुः । कियदिनस्थायिनि जीवितेऽस्मिन्, कि खिद्यते वैरिधिया परस्मिन् ॥ १७४॥
__(उपजाति) अर्थ-हे आत्मन् ! सर्व जीवों पर मैत्री भाव धारण करो। इस जगत में किसी को शत्र न मानो। इस जीवन में कितने दिन रहने का है ? अन्य पर शत्रुबुद्धि करके व्यर्थ ही क्यों खेद पाते हो ? ॥ १७४ ॥
विवेचन अल्पकालीन जीवन में किसी से वैर क्यों रखें
हे पात्मन् ! इस जगत् में रहे हुए सर्व जीवों के प्रति तू मैत्रो भाव धारण कर। किसी के प्रति भी द्वष मत कर ।
शान्त मुधारम विवेचन ११६