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हृदय में है, परन्तु सर्व के सुख की इच्छा करने वाले विरल ही होते हैं। स्व सुख की इच्छा स्वार्थवृत्ति है, सर्व-सुख की इच्छा परार्थवृत्ति है।
जब हृदय में शत्रु के कल्याण की कामना पैदा होती है, तब आत्मा का वास्तविक विकास होता है। शत्रु के कल्याण की भावना होना सरल बात नहीं है। द्वेष भाव इस प्रकार की भावना में बाधक है। जब हृदय में द्वेष की मन्दता होती है, तभी अन्य (शत्रु) के कल्याण की कामना पैदा हो सकती है।
शास्त्र में भी कहा है-'भावना भवनाशिनी' । सर्व जीवों के प्रति मैत्री आदि भावनाओं के भावन से अपनी आत्मा का परिभ्रमण टलता है।
दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व महाराजा गुणसेन ने 'रात्रि प्रतिमा' स्वीकार को थो और उसी रात्रि में देव बने अग्निशर्मा (विद्युत् कुमार) ने गर्मागर्म रेती की वृष्टि कर गुरणसेन राजा पर मरणान्त उपसर्ग किया था। इस मरणान्त उपसर्ग में भी गुरगसेन महाराजा ने सर्व जीवों के प्रति मैत्री भावना से अपनी प्रात्मा को भावित किया था और इसके साथ 'अग्निशर्मा' को याद कर विशेषकर उससे क्षमायाचना की थी। अग्निशर्मा ने गुणसेन राजा को अपना दुश्मन माना, परन्तु गुणसेन महाराजा ने अग्निशर्मा को अपना दुश्मन नहीं माना, बल्कि मित्र ही माना।
शत्रु के प्रति भी मैत्री भाव को धारण करने से गुरणसेन की मात्मा ने अल्प भवों में ही अपनी प्रात्मा का कल्याण कर लिया
शान्त सुधारस विवेचन-१४०