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विवेचन
जिनवचन रूपी अमृत का पान करो
अहो ! इस संसार में वे जीव दया के पात्र हैं, जिनको जिनवचन श्रवरण की सुलभता होने पर भी वे उसका लाभ नहीं उठाते हैं ।
सरोवर के निकट होने पर भी कोई प्यासा मर जाय; भोजन होने पर भी कोई भूखा मर जाय; इसी प्रकार जिनवारणी के श्रवरण की सुलभता मिलने पर भी जो आत्माएँ उसकी उपेक्षा करती हैं, उन प्रात्मानों की स्थिति अत्यन्त ही दयनीय है ।
जिनवचन तो अमृतरस के समान हैं, जिनके श्रवण से आत्मा की अनादि की तृषा शान्त हो जाती है । जिनवारणी के श्रवरण से ही संसार की वास्तविक स्थिति का बोध होता है ।
लोहखुर चोर ने अपने पुत्र रोहिणेय को महावीर वाणी का श्रवरण नहीं करने की प्रतिज्ञा कराई थी । रोहिणेय चोर अपनी प्रतिज्ञा पर अटल था और कभी भी महावीर वाणी का श्रवण नहीं करता था । एक बार वह राजगृही की ओर जा रहा था, मार्ग में भगवान महावीर समवसरण में बैठकर देशना दे रहे थे । रोहिणेय ने अपने कानों में अंगुली डाल ली और वह चल पड़ा । परन्तु चलते हुए उसके पैर में एक तीक्ष्ण कांटा चुभ गया, उस कांटे को निकालने के लिए उसने एक कान पर से एक हाथ हटाया और उसी बीच प्रभु की वाणी उसके कानों में पड़ी । प्रभु उस समय देवों के स्वरूप का वर्णन कर रहे थे । रोहिणेय को अनचाहे
शान्त सुधारस विवेचन- १४४