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शत्रुजनाः सुखिनः समे,
मत्सरमपहाय सन्तु गन्तुमनसोऽप्यमी ,
शिव - सौख्यगृहाय ॥ विनय० १८३ ॥ अर्थ-मत्सर भाव का त्याग कर सभी शत्रुजन भी सुखी बनें और शिव सुख के गृह रूप मुक्ति-पद की प्राप्ति के लिए इच्छुक बनें ॥ १८३ ।।
विवेचन सभी आत्माएँ सभी की हितैषी बनें
हे आत्मन् ! तू इस प्रकार की भावना कर कि इस दुनिया में जो शत्रुजन हैं, वे भी अपनी शत्रुता/मत्सर भाव का त्याग कर सुखी बनें।
मत्सर भाव-ईर्ष्या भाव व्यक्ति को दुःखी करता है। ईर्ष्या ऐसी आग है, जो अन्तःकरण को जलाती है। ईर्ष्या की प्राग से सन्तप्त बनी प्रात्मा, अपने सुकृतों का लोप करती है. और पुण्य को समाप्त करती है।
उन शत्रुजनों के हृदय में भी मुक्ति पाने की भावना जागृत हो और वे भी मुक्ति पाने के लिए उत्कण्ठित बनें। इस प्रकार की शुभ भावना के भावन से आत्मा में शुभ भाव पैदा होता है और आत्मा क्रमशः शुद्ध बनती जाती है।
स्व-सुख की प्राप्ति की इच्छा तो जगत् में सर्व प्राणियों के
शान्त सुधारस विवेचन-१३६