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का विचार किया जाय तो व्यक्ति अवश्य ही क्रोध कषाय से बच सकता है और अपनी आत्म-हानि को रोककर प्रात्म-लाभ प्राप्त कर सकता है।
अनुचितमिह कलहं सतां ,
त्यज समरसमीन । भज विवेककलहंसतां ,
गुरणपरिचयपीन ॥विनय० १८२ ॥
अर्थ-हे समत्वरस के मीन ! सज्जनों के लिए कलह अनुचित है, अतः तू उसका त्याग कर। सद्गुण के परिचय से पुष्ट बने हे चेतन! विवेक की कलारूप हंसता को भज । (अर्थात् हंस की तरह विवेकी बन) ॥ १८२ ।।
विवेचन कलह का त्याग करो ___ हे प्रात्मन् ! सज्जन व्यक्ति के लिए कलह करना उचित नहीं है। कलह और क्लेश से आत्मा के परिणाम बिगड़ते हैं और आत्मा दुर्ध्यान करती है। दुर्ध्यान से दुष्कर्म का बन्ध होता है और दुष्कर्म से प्रात्मा की दुर्गति होती है। अतः हे पात्मन् ! तू समतारस का पान कर। समत्व की साधना से प्रात्मा अल्पकाल में ही कर्मबन्धन से मुक्त बन जाती है। ममत्व के कारण कलह पैदा होती है और समत्व के कारण मैत्री पैदा होती है।
शान्त सुधारस विवेचन-१३७