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(५) क्रोध करने वाला व्यक्ति स्वयं का ही नुकसान कर रहा है। 'मैं भी गुस्सा करके अपना नुकसान क्यों करू?'
(६) क्रोध आत्मा की विकृत अवस्था है। क्रोध करने से प्रात्मा के स्वभाव गुण की हानि होती है। 'मैं व्यर्थ ही गुस्सा करके अपनी आत्मा को विकृत क्यों करूँ ?'
(७) क्रोध करने से आँखें गर्म हो जाती हैं, मुंह लाल हो जाता है। शारीरिक तनाव बढ़ जाता है। 'मैं गुस्सा करके अपने स्वास्थ्य का नुकसान क्यों करूँ ?'
(८) क्रोध करने से आत्मा नवीन कर्मों का बन्ध करती है और नवीन कर्मों के बन्ध से प्रात्मा अपना ही अनर्थ करती है। प्रतः किसी के गुस्सा करने पर यह विचार करना चाहिए कि 'मैं गुस्सा करके अपनो प्रात्मा को कर्मबंधन से ग्रस्त क्यों करूं ?'
(९) यदि इस क्रोध के प्रसंग में मैं समता रखूगा, तो स्वतः उस व्यक्ति को अपनी भूल ख्याल में आने पर पश्चात्ताप होगा।
(१०) क्रोध के प्रसंग में भी यदि मैं क्रोध नहीं करूंगा तो 'मैं समता की साधना में आगे बढ़ सगा और मेरे कर्मों की भी निर्जरा होगी।'
(११) क्रोध के प्रसंग में शान्ति रखने पर व्यक्ति लोकप्रिय बनता है। ऐसे शान्त व्यक्ति से सभी प्रेम करना चाहते हैं। __ इस प्रकार क्रोध के प्रसंग में, क्रोध से होने वाले नुकसानों
शान्त सुधारस विवेचन-१३६