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अर्थ - यदि कोई अपने कर्म के वशीभूत होकर क्रोध करता है, तो तुम हृदय में क्रोध के वशीभूत क्यों बनते हो ? ।। १८१ ।।
विवेचन
किसी पर क्रोध मत करो
हे आत्मन् ! यदि कोई व्यक्ति तुझ पर क्रोध करता है, तो तू पुनः उस पर क्रोध मत कर । यदि कोई व्यक्ति अपने कषाय के उदय से तुझ पर गुस्सा करता है, तो तू उस समय यह विचार कर
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( १ ) कि यह व्यक्ति मुझ पर गुस्सा कर रहा है, इसमें किसका दोष है ? यदि तेरी भूल के कारण वह व्यक्ति तुझ पर गुस्सा कर रहा है, तो इसमें तुझे नाराज होने की क्या आवश्यकता है, तुझे अपनी भूल स्वीकार करनी ही चाहिये ।
(२) यदि तूने कोई अपराध नहीं किया है, तो भी तुझे गुस्सा करने की क्या आवश्यकता है ? निरपराध को डरने की क्या जरूरत है ? आखिर तो 'सत्य की ही जीत होती है । 'सत्यमेव जयते' इस वचन पर विश्वास कर और गुस्सा करने में जल्द - बाजी मत कर ।
(३) वह व्यक्ति गुस्सा करके स्वयं का ही नुकसान कर रहा है, तो फिर तू गुस्सा करके अपना नुकसान क्यों करता है ?
(४) गुस्सा तो कषायोदय का कारण है । जब पाप का उदय होता है, तभी व्यक्ति क्रोध के अधीन बनता है, वह व्यक्ति तो गुस्सा करके अपने पापोदय के फल को भोग रहा है । तू क्यों गुस्सा करके अपने पाप को उदय में ला रहा है ?
शान्त सुधारस विवेचन - १३५