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सर्वे ते प्रियबान्धवाः ,
नहि रिपुरिह कोऽपि। मा कुरु कलिकलुषं मनो ,
निजसुकृतविलोपि ॥ विनय० १८० ॥ अर्थ-ये सब तुम्हारे प्रिय बन्धु हैं, इनमें कोई तुम्हारा दुश्मन नहीं है। कलह से कलुषित मन सुकृत का लोप करने वाला होता है (अतः अपने मन को कलुषित मत करो) ॥ १८० ।।
.. विवेचन मन को कलुषित मत करो
हे पात्मन् ! इस संसार में जितने भी प्राणी हैं, वे सब तेरे प्रिय बान्धव हैं, उनमें एक भी जीव वास्तव में तेरा शत्रु नहीं है।
वर्तमान में तुझे कोई व्यक्ति शत्रु प्रतीत हो रहा है, तो यह तेरी द्वेष भावना का ही फल है। अथवा कोई व्यक्ति तुझ पर शत्रुता धारण कर रहा है, तो यह उसकी द्वेष भावना का तथा तेरे पापोदय का ही फल है।
राग और द्वषजन्य अवस्थाएँ वास्तविक नहीं हैं, वे तो कर्मकृत हैं। जिस पर रेगिस्तान की मरुभूमि में गर्मी के दिनों में जब गर्म हवा (लू) चलती है, तब दूर से वहाँ जल बहता हुआ दिखाई देता है, परन्तु वहाँ निकट जाने पर जल की एक बूद भी हमें नहीं मिल पाती है, क्योंकि वहाँ वास्तव में जल नहीं है, किन्तु
शान्त सुधारस विवेचन-१३३