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जगत् के सर्व जीवों को तू अपना मित्र मान। आज वे जीव जिस विकृत अवस्था में तुझे दिखाई दे रहे हैं, यह तो उनकी कर्म-कृत अवस्था है। स्व-स्व-कर्म की भिन्नता के कारण सभी प्रात्माओं की भिन्न-भिन्न स्थिति है। कोई शुभ पुण्योदय से राजा बना हुआ है, तो कोई पापोदय से रंक बना हुआ है। किसी के यश नामकर्म का उदय होने से चारों ओर उसका यश फैल रहा है तो किसी के अपयश नामकर्म का उदय होने से चारों ओर उसकी निन्दा हो रही है ।
किसी के सुस्वर नामकर्म का उदय होने से जब वह गाता है, तब हजारों लोग इकट्ठ हो जाते हैं और मस्ती से झूमने लगते हैं तो किसी के दुस्वर का उदय होने से उसकी वारणी सभी को कर्णकटु लगती है।
किसी के आदेय नामकर्म का उदय है तो उसकी हर सच्चीझूठी बात सबके द्वारा स्वीकार कर ली जाती है, तो किसी के अनादेय नामकर्म का उदय होने से, उसकी सच्ची बात की भी उपेक्षा की जाती है, कोई उसकी ओर ध्यान नहीं देता है।
किसी के शातावेदनीय कर्म का उदय है तो वह दुर्घटना होने पर भी बच जाता है और किसी के प्रशाता का उदय है तो वह बिना किसी निमित्त के भी बीमार हो जाता है। ____ कर्म की इस विचित्रता के विविध परिणाम हमें इस दुनिया में चारों ओर दिखाई देते हैं ।
संसारी जीवों की यह सब विविधता कर्म की आभारी है। वास्तव में, यह आत्मा का वास्तविक स्वरूप नहीं है। आत्मा तो ज्ञानमय, दर्शनमय और चारित्रमय है।
शान्त सुधारस विवेचन-१३१