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'जगत् में रहे सर्व जीवों के राग-द्वेष रूप शत्रु शान्त हो जायें। सभी जीव उदासीन/वीतराग अवस्था को प्राप्त करें और सभी जीव सदा काल सुखी बनें ।'
राग-द्वेष के उपशमन से, वीतराग अवस्था पाने पर सभी जीव सदा के लिए सुखी बन सकते हैं ।
'इस संसार में कोई भी जीव पाप न करे। कोई भी जीव दुःखी न हो। सभी जीव मुक्ति-पद को प्राप्त करें।'
इस प्रकार की मैत्री भावना से अपनी आत्मा को भावित करने से प्रात्मा कर्म के बन्धन से मुक्त बनती है, तत्काल चित्तप्रसन्नता का अनुभव करती है और परम्परा से मुक्ति-पद को प्राप्त करती है।
अपने सुख-दुःख के प्रति, शत्रु-मित्र के प्रति, अनुकूलताप्रतिकूलता के प्रति जब मध्यस्थ भाव पैदा होता है, तब वास्तविक उदासीनता (तटस्थता) गुण की प्राप्ति होती है, इस गुण की प्राप्ति होने पर जीवन में वास्तविक आनन्द की अनुभूति होती है, इस संसार में सभी जीव इस प्रकार के उदासीन भाव को प्राप्त करें और सभी जीव सदा काल सुखी बनें।
MANI
सुधारस-६
शान्त सुधारस विवेचन-१२६