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विवेचन
जगत् के सभी जीव सुखी हों
इस संसार में जीवात्मा को सबसे बुरा रोग लगा है-राग और द्वेष का; यदि राग और द्वेष न हों तो मात्मा का इस संसार में परिभ्रमण भी नहीं होगा। राग एक ऐसा स्नेह (चिकाश) है, जिसके कारण ही कर्मवर्गणाएँ पाकर प्रात्मा पर चिपकती हैं।
राग और द्वष के अध्यवसाय करके प्रात्मा कर्मों को अपनी पोर खींचती है। यदि प्रात्मा में राग-द्वेष की स्निग्धता नहीं है, तो कर्म पाकर कभी नहीं चिपकेंगे।
मात्मा के संसार का मूल कारण राग ही है। जहाँ राग है, वहाँ द्वेष का अस्तित्व भी अवश्य होगा। जिसके हृदय में सानुकूल पदार्थों के प्रति राग रहा हुमा है, उसके हृदय में प्रतिकूल वस्तुओं के प्रति अवश्य द्वष होगा ही।
राग-द्वेष की अभिव्यक्ति मन, वचन और काया के द्वारा होती है। अनुकूल वस्तु मिलने पर मन का प्रसन्न होना, मन का राग है, राग-युक्त वचन बोलना वचन का राग है और देह के अनुकूल वस्तु का भोग करना, काया का राग है। इसी प्रकार प्रतिकूल वस्तु मिलने पर अप्रसन्न बनना, मन का द्वेष है। किसी को अहितकर कटुवचन बोलना वचनद्वेष है और प्रतिकूल प्रसंग में न रहना, उससे दूर भागना आदि कायाकाद्वेष है ।
मैत्री भावना से अपनी आत्मा को भावित करने के लिए इस प्रकार विचार करें कि
शान्त सुधारस विवेचन-१२८