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हुई है और उस जिनशासन की आराधना कर वे अपने संसारभ्रमण को समाप्त कर रही हैं।
धर्महीन और दु:खी उन समस्त जीवों के प्रति मैत्री भाव को धारण करने के लिए पूज्य उपाध्याय जी म. फरमाते हैं कि हे प्रात्मन् ! तू इस प्रकार की शुभ भावना कर कि वे सभी जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्यादि अवस्था को प्राप्त कर जिनशासन की आराधना करें और बोधिरत्न को प्राप्त कर, अपनी आत्मा के भव-भ्रमण को सदा के लिए मिटा दें।
इस संसार में जिनशासन/परमात्म-शासन ही आत्मा को सच्चे सुख का मार्ग दिखलाता है। उसकी प्राप्ति और उसके आराधन से ही आत्मा भव-भ्रमण के बन्धन से मुक्त बन सकती है। उसकी प्राप्ति से रहित चक्रवर्तीपना भी आत्मा के लिए हितकर नहीं है।
या रागरोषादिरजो जनानां ,
शाम्यन्तु वाक्काय-मनोद्रुहस्ताः । सर्वेऽप्युदासीनरसं रसन्तु , सर्वत्र सर्वे सुखिनो भवन्तु ॥ १७८ ॥
(इन्द्रवज्रा)
अर्थ-सभी प्राणियों के मन, वचन और काया को दुःख देने वाले राग-द्वेष आदि सभी रोग शान्त हो जायें। सभी जीव समतारस का पान करें और सभी जीव सर्वत्र सुखी बने ।। १७८ ॥
शान्त सुधारस विवेचन-१२७