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चढ़ गया और वे उसे फटकारते हुए, मरे हुए अन्य मेंढ़क को दिखाते हुए बोले-'क्या यह सब मैंने मारा है ?'
संध्याकालीन प्रतिक्रमण के समय अन्य मुनियों की उपस्थिति में जब बालमुनि ने तपस्वीमुनि को अपनी भूल याद दिलाई तो वे झल्ला उठे, अत्यन्त आवेश में आ गये और उस बालमुनि को रजोहरण से मारने के लिए दौड़ पड़े।
भावी जो होना था. बालमुनि दौड़े "तपस्वीमुनि भी दौड़े..."रात्रि का अन्धकार था""उपाश्रय में पत्थर का स्तम्भ था."तपस्वीमुनि उससे टकरा गए और उसी क्रोधावस्था में उनके प्राणपखेरू उड़ गए""ज्योतिष देव के भव के बाद वे कोशिक नामक तापस बने, उस भव में भी क्रोधावस्था में उनकी मृत्यु हुई और वहाँ से मरकर वे चण्डकोशिक दृष्टिविष सर्प बने।
उस सर्प की दृष्टि में ही विष था, जिस पर वह दृष्टि डालता, वह वहीं पर धराशायी हो जाता।
इस प्रकार बालमुनि पर क्रोध भाव धारण करने से तपस्वी महात्मा का पतन हो गया। यह तो कुछ अहोभाग्य था कि उस सर्प को भगवान महावीर का संगम हो गया और प्रभु की वारणी को सुनकर वह प्रतिबुद्ध हो गया। • भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के समय स्कन्दिलाचार्य नामक प्राचार्य हुए, जिनके ५०० शिष्य थे।
किसी वैर की भावना से पालक मंत्री ने स्कन्दिलाचार्य के ५०० शिष्यों को घारणी (यंत्र) में पिलवा दिया।
शान्त सुधारस विवेचन-११९