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परिवार के ही अंग हैं। गत जन्मों में उन जीवों के साथ माता, पिता, चाचा, भाई, बहिन, स्त्री तथा पुत्रवधू आदि के सम्बन्ध किए हैं। अतः यह समस्त विश्व तेरा परिवार ही है। उन सभी जीवों को अपने परिवार का अंग मानकर उनके प्रति तू समुचित व्यवहार कर। किसी के प्रति द्वष या वैर भाव धारण मत कर।
इस संसार में परिभ्रमण करते हुए हमारी आत्मा ने हर जीव के साथ हर प्रकार के सम्बन्ध बाँधे हैं। हर जीव के साथ किसी-न-किसी भव में हमारा पारिवारिक घनिष्ट सम्बन्ध भी रहा हुआ है, अतः ये सभी जीव तेरे प्रात्मीय जन ही हैं, तेरे लिए कोई जीव पराया नहीं है। अतः किसी को भी तू शत्रु मत मान । सबको अपना स्वजन मानकर उनके प्रति हितबुद्धि धारण कर ।
आज तू जिसे शत्रु मान रहा है, वह गत जन्म का तेरा पिता भी हो सकता है""माँ भी हो सकती है""पुत्र भी हो सकता है । अतः तू उस शत्रुता का त्याग कर दे। एकेन्द्रियाद्या अपि हन्त जीवाः ,
पञ्चेन्द्रियत्वाद्यधिगत्य सम्यक् । बोधि समाराध्य कदा लभन्ते , भूयो भवभ्रान्तिभियां विरामम् ॥ १७७॥
(इन्द्रवज्रा) अर्थ-एकेन्द्रिय आदि जीव भी पंचेन्द्रिय प्रादि विशिष्ट सामग्री को प्राप्त कर बोधिरत्न की आराधना कर भवभ्रमण के भय से कब विराम पाएंगे? ॥ १७७ ।।
सूब
शान्त सुधारस विवेचन-१२३