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कितना क्षणिक है ? जब तेरे जीवन-अस्तित्व का ही कोई भरोसा नहीं है, तो तू व्यर्थ इस जीवन के क्षणिक सुखों के लिए किसी व्यक्ति पर क्रोध कर अपनी आत्मिक शान्ति को क्यों नष्ट करता है ?
सर्वेऽप्यमी बन्धुतयाऽनुभूताः ,
सहस्रशोऽस्मिन् भवता भवाब्धौ । जीवास्ततो बन्धव एव सर्वे , न कोऽपि ते शत्रुरिति प्रतीहि ॥ १७५ ॥
(उपजाति) अर्थ-इस संसार रूपी सागर में ये सभी जीव हजारों बार बन्धु रूप से अनुभव किए हुए हैं, अतः ये सब तुम्हारे बन्धु हैं। कोई भी जीव तुम्हारा शत्रु नहीं है, इस बात का मन में निश्चय करो।। १७५ ॥
विवेचन जगत् के सभी जीव अपने मित्र हैं
हे आत्मन् ! इस संसार में सभी जीव तेरे बन्धु/भाई हैं, क्योंकि इस अनन्त संसार में सभी जीवों के साथ भाई के सम्बन्ध किए हैं।
इस संसार में अपनी प्रात्मा का अस्तित्व अनादि काल से है। सभी आत्माएँ अनादि से हैं। इस संसार में अपनी प्रात्मा ने अनन्त बार मनुष्य आदि का जीवन भी पाया है और उन जीवनों में अनेकानेक जीवों के साथ भाईचारे के सम्बन्ध भी किए
शान्त सुधारस विवेचन-१२१