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तेरा यह जीवन तो क्षणभंगुर है। तू व्यर्थ ही अन्य जीवों के प्रति वैर भाव को धारण कर क्यों खेद पाता है ?
यह अनुभव-सिद्ध बात है कि जब भी हम किसी व्यक्ति के प्रति द्वेष या वैर भाव को धारण करते हैं, तब हमारा चित्त अत्यन्त व्याकुल हो जाता है, चित्त की प्रसन्नता समाप्त हो जाती है और चित्त अत्यन्त ही चंचल हो जाता है, फिर अनेकविध व्यर्थ-विचार चित्त में पैदा होते हैं।
___.."वह तो मेरा दुश्मन है""उसने मेरा यह बिगाड़ दिया""अब मैं उसे किसी प्रकार की सहायता नहीं करूंगा, "वह मुझे कमजोर समझता है ? .."अब मैं भी उसे देख लूगा."अपने वैर का बदला बराबर लूगा।'इत्यादि-इत्यादि वैर-भावनाओं के विचार से हमारा मन कलुषित हो जाता है और हमारी आत्मा में कर्म का प्रास्रव-द्वार खल जाता है। कई बार हमारे मन में किसी व्यक्ति विशेष के लिए जो कुछ बुरे विचार पैदा होते हैं, उनमें से हम कुछ भी कर नहीं पाते हैं. फिर भी आत्मा व्यर्थ ही परेशान होती है।
वाचकवर्य श्री उमास्वातिजी म. ने 'प्रशमरति' में कहा है
'क्रोधः परितापकरः,"वैरानुषङ्गजनकः क्रोधः।' अर्थात् क्रोध अत्यन्त परिताप/सन्ताप पैदा करने वाला है तथा वैर की परम्परा को जन्म देने वाला है ।
अतः 'हे पात्मन् ! इस संसार में तू किसी को शत्रु मत मान ।' क्योंकि किसी को शत्रु मानने पर ही क्रोध पैदा होता है और क्रोध से वेर-भाव पैदा होता है। क्रोध से वैर भाव बढ़ता
शान्त सुधारस विवेचन-११७