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सीता के सतीत्व की परीक्षा के लिए रामचन्द्रजी ने अग्निपरीक्षा का निर्णय लिया था। नगर के बाहर हजारों की संख्या में प्रजाजन एकत्र हो चुके थे और योग्य भूमि पर अग्निकुण्ड की रचना भी तैयार हो गई थी।
सीता अग्नि-प्रवेश के लिए तैयार थी..."उसे अपने सतीत्व पर पूर्ण प्रात्म-विश्वास था "उसने परमेष्ठि-भगवन्तों का शरण स्वीकार किया""जिनधर्म का शरण स्वीकार किया और तत्क्षण अग्नि में प्रवेश कर दिया। सीता के अग्निप्रवेश के समय चारों ओर हाहाकार मच गया था। अब क्या होगा? क्या सीता बच जाएगी? सीता जल तो नहीं जाएगी? इत्यादि प्रश्न उपस्थित जनसमुदाय के मस्तिष्क में घूम रहे थे। किन्तु एक ही क्षण में जब वह अग्निकुण्ड सरोवर में बदल गया और उस सरोवर के मध्य में सुन्दर कमल पर लक्ष्मी की भाँति बैठी हुई सीताजी को सबने देखा तो सीता के सतीत्व के जय-जयकार के साथ सम्पूर्ण प्राकाश-मण्डल गूज उठा था।
हाँ, यह सती सीता के शीलधर्म का प्रत्यक्ष प्रभाव था, जिससे आग की लपटें सीता के देह का स्पर्श भी न कर पाई और जल में बदल गई।
धर्म के प्रभाव से जंगल में मंगल होता है। 'जहाँ राम वहाँ अयोध्या ।' रामचन्द्रजी जहाँ-जहाँ पधारते थे, वहीं अयोध्या खड़ी हो जाती थी, यह उनके धर्म का ही पुण्य प्रभाव था।
मलयसुन्दरी, सुरसुन्दरी आदि अनेक सतियाँ समुद्र में गिर पड़ी थीं, धवल सेठ ने श्रीपाल महाराजा को समुद्र में फेंक दिया
शान्त सुधारस विवेचन-३०