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समवघातसमये जिनैः ,
परिपूरितदेहम् । असुमदणुकविविध-क्रिया- ,
गुणगौरवगेहम् , विनय० ॥ १५० ॥ अर्थ-केवली भगवन्त केवली समुद्घात के समय अपने आत्मप्रदेशों से समस्त लोकाकाश को भर देते हैं, यह जीव और पुद्गल की विविध क्रिया के गुण-गौरव का स्थान है ।। १५० ।।
विवेचन लोकाकाश में जीव-पुद्गल की विभिन्न क्रियाएँ
शुक्लध्यान के द्वारा आत्मा समस्त घाती (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) कर्मों का क्षय कर सर्वज्ञ-सर्वदर्शी और वीतराग बनती है। शुक्लध्यान के द्वारा आत्मा अन्य कर्मों का क्षय कर सकती है। परन्तु आयुष्य कर्म का क्षय नहीं कर सकती है। केवली भगवन्त का आयुष्य निरुपक्रम होता है अर्थात् उनके प्रायुष्य कर्म पर किसी प्रकार का उपक्रम नहीं लगता है। अपवर्तना आदि करण के द्वारा आयुष्य कर्म को कम नहीं किया जा सकता है।
देव, नारक, चरमशरीरी, त्रिषष्टिशलाकापुरुष तथा युगलिक आदि का आयुष्य निरुपक्रम होता है तथा अन्य जीवों का प्रायूष्य सोपक्रम भी हो सकता है। प्रयत्नविशेष से सोपक्रम आयुष्य को कम किया जा सकता है।
मोक्षगामी केवलज्ञानी आत्मा के आयुष्य कर्म की स्थिति
शान्त सुधारस विवेचन-६१