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और जड़ के प्रति विरक्ति होनी चाहिये। मोहाधीन अवस्था में मात्मा में जड़-राग और जीव-द्वेष की प्रबलता रहती है ।
दुनिया में जहाँ कहीं भी राग-प्रेम दिखाई देता है, वह वास्तव में जड़त्व का ही राग होता है। हाँ, कहीं व्यक्तियों की भी पारस्परिक प्रीति दिखाई देती है, परन्तु वहाँ भी कोई जीवत्व का प्रेम या राग नहीं है, वह राग-प्रीति भी स्वार्थजन्य
पुरुष का स्त्री के प्रति राग रूप के कारण और स्त्री का पुरुष के प्रति राग प्रायः रुपए के कारण होता है। रूप और रुपया अथवा काम और अर्थ से जन्य प्रीति क्या कोई वास्तविक प्रीति है ? वह तो वास्तव में जड़ का ही राग है।
आज के इस विज्ञान युग अथवा भौतिकवाद के युग में चारों ओर जड़-विज्ञान ही विकसित हुआ है और इसके द्वारा जड़ का ही राग पुष्ट बना है। जहाँ जड़ का तीव्र राग होगा, वहाँ जीवत्व का द्वेष देखने को मिलेगा ही।
जड़ के राग और जीवत्व के द्वेष के विसर्जन और जड़विरक्ति और जीव मैत्री के सर्जन के लिए परमात्मा ने 'भावना' धर्म बतलाया है। अनित्यादि बारह भावनाओं से जड़-विरक्ति प्रगट होती है और मैत्री आदि भावनाओं से जीवत्व का अनुराग प्रबल होता है।
धर्म कल्पवृक्ष का मूल 'योगसार' ग्रन्थ में पूर्वाचार्य महर्षि ने कहा है
धर्मकल्पद्रुमस्यैता मूलं मैत्र्यादिभावनाः ।
शान्त सुधारस विवेचन-१०८