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वास्तव में, वही अनुष्ठान धर्मानुष्ठान है, जिसके गर्भ में मैत्री आदि भावनाएँ रही हुई हैं। मैत्री आदि भावनाओं से रहित अनुष्ठान धर्मानुष्ठान नहीं है। ..
अपनी आत्मा को शुभध्यान (धर्मध्यान) से जोड़ने के लिए मैत्री आदि भावनाएँ अनिवार्य हैं।
अपनी आत्मा ज्यों-ज्यों इन मैत्री आदि भावनाओं से भावित/प्रोतप्रोत बनती है, त्यों-त्यों वह धर्मध्यान में स्थिर बनती जाती है।
मात्र स्व-सुख का चिन्तन प्रार्तध्यान है। मात्र स्व-सुख के रक्षण और दुःख के निवारण का चिन्तन प्रार्तध्यान है, जो अपनी आत्मा को दुर्गति के गर्त में डालता है। जबकि जगत् में रही सर्व जीवात्माओं का हित-चिन्तन, सर्व की सुखप्राप्ति मौर दुःख-निवृत्ति का चिन्तन धर्मध्यान है।
'स्व-सुख' की इच्छा आर्त्तध्यान है । सर्व-सुख की इच्छा धर्मध्यान है।
पार्तध्यान से धर्मध्यान में जाने के लिए ये भावनाएँ सेतु का काम करती हैं।
जिनेश्वर भगवन्तों ने मंत्री आदि भावनाएँ बतलाकर भव्यात्माओं पर महान् उपकार किया है।
ये मैत्री भावनाएं धर्मध्यान का रसायन हैं । जिस प्रकार सुवर्णभस्म, कस्तूरी, लोहभस्म आदि का
शान्त सुधारस विवेचन-११२