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उपयोग करने से देह की पुष्टि होती है, उसी प्रकार मैत्री आदि भावनाओं के भावन से प्रात्मा पुष्ट बनती है।
मैत्री परेषां हितचिन्तनं यत् ,
भवेत् प्रमोदो गुणपक्षपातः । कारुण्यमार्ताऽङ्गिरुजां जिहीर्षत्युपेक्षरणं दुष्टधियामुपेक्षा ॥ १७३ ॥
(उपजाति) अर्थ-अन्य जीवों का हित-चिन्तन मैत्री भावना है, गुण का पक्ष करना प्रमोद भावना है, दुःखी प्राणियों के दुःख को दूर करने की इच्छा करुणा भावना है और दुष्ट बुद्धि वाले जीवों पर राग-द्वेष रहित होकर रहना माध्यस्थ भावना है ।। १७३ ।।
विवेचन चार भावनाओं का स्वरूप
प्रस्तुत गाथा में ग्रन्थकार महर्षि ने अत्यन्त ही संक्षेप में किन्तु बहुत अर्थगम्भीर व्याख्या प्रस्तुत की है।
मैत्री अर्थात् पर-हित-चिन्तन । प्रमोद अर्थात् गुण का पक्षपात। करुणा अर्थात् दुःखी के दुःख को दूर करने की इच्छा । माध्यस्थ्य अर्थात् दुष्टबुद्धि वालों की उपेक्षा ।
सुधारस-८
शान्त सुधारस विवेचन-११३