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एकान्त निश्चयनय के एकांगी दृष्टिकोण को पकड़कर एकमात्र ध्यान से मुक्ति की बातें करने वाले भी अनेक पन्थ निकल पड़े हैं। एकान्त निश्चयनय की पुष्टि करने के साथ-साथ वे व्यवहारनय का खण्डन भी करते हैं और दान, शील तथा तप आदि बाह्य धर्मों की निरर्थकता सिद्ध करते हैं। इस प्रकार एकान्त निश्चयनय की देशना से बालजीव धर्म से च्युत हो जाते हैं और उनकी स्थिति 'न घर की न घाट की' हो जाती है।
कोई स्थापना निक्षेप का उत्थापन कर रहे हैं तो कोई दया-दान में हिंसा की बातें करते हैं। इतना ही नहीं, अपने मत की पुष्टि के लिए आगम के अर्थ को तोड़-मरोड़ करके भी अपने मत को पुष्ट करना चाहते हैं।
अपने मत को असत्य जानते हुए भी केवल निजी स्वार्थ के लिए वे लोग कुयुक्तियों का प्राश्रय लेते हैं और किसी भी प्रकार से अपने मत की पुष्टि करना चाहते हैं।
दुनिया में 'युक्ति' से भी 'कुयुक्ति' का बोलबाला अधिक है, अधिकांशतः कुमतों का प्रचार व प्रसार कुयुक्तियों के बल पर ही चलता है।
कई बार इन कुतर्कों के जाल में फंसकर व्यक्ति सद्धर्म से भी च्युत हो जाता है।
इसके साथ ही इस काल में धर्मतीर्थ के अधिष्ठायक देवताओं का भी प्रायः सान्निध्य प्राप्त नहीं है। पृथ्वी पर देवताओं का आगमन लगभग नहींवत् हो गया है, इस कारण भी सद्धर्म की रक्षा करना अत्यन्त कठिन हो गया है।
शान्त सुधारस विवेचन-८३