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डाकाभावनाऽष्टकम्
बुध्यतां बुध्यतां बोधिरतिदुर्लभा ,
जलधिजलपतितसुररत्नयुक्त्या । सम्यगाराध्यतां स्वहितमिह साध्यतां ,
बाध्यतामधरगतिरात्मशक्त्या, बुध्य० ॥ १६३ ॥ अर्थ-समुद्र में गिर पड़े चिन्तामणि रत्न के दृष्टान्त से बोधि की अत्यन्त दुर्लभता को समझो। बोधिरत्न की दुर्लभता को समझकर उसका सम्यग पाराधन करो, आत्महित साधो और अपनी आत्म-शक्ति से दुर्गति को रोक दो ।। १६३ ।।
विवेचन
बोधि की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है
किसी ब्राह्मण के मन में चिन्तामणि-रत्न पाने की इच्छा पैदा हुई। इस हेतु वह अपने घर से निकल पड़ा, समुद्रयात्रा पूर्ण कर वह अन्य द्वीप पर पहुँचा। उस द्वीप में एक यक्ष की मूर्ति थी, उसने उपवास के तप के साथ यक्ष की साधना प्रारम्भ कर दी।
उसने निरन्तर इक्कीस उपवास किए। यक्ष प्रसन्न हो
शान्त सुधारस विवेचन-८८