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बस ! ये ही दो प्रश्न हर व्यक्ति के सामने खड़े हैं और इन्हीं के समाधान के लिए सारे प्रयत्न पुरुषार्थपूर्वक होते हैं। एवमतिदुर्लभात् प्राप्य दुर्लभतमं ,
बोधिरत्नं सकलगुणनिधानम् । कुरु गुरुप्राज्यविनयप्रसादोदितम् ,
शान्तरससरसपीयूषपानम् ॥ बुध्य० ॥ १७० ॥ अर्थ-इस प्रकार अत्यन्त दुर्लभ, सकल गुण के आधार रूप और जो श्रेष्ठ विनय गुरण के प्रसाद रूप में प्राप्त हुना है, ऐसे बोधिरत्न का उपयोग करो और शान्तरस रूप अमृतरस का पान करो ॥ १७० ॥
विवेचन बोधिप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करो
अन्त में पूज्यपाद उपाध्यायजी म. यही फरमाते हैं कि हे भव्यात्मन् ! इस अनन्त संसार में बोधि की दुर्लभता को तू समझ और उसकी प्राप्ति के लिए तू पुरुषार्थ कर। क्योंकि यह बोधि सकल गुणों के निधान स्वरूप है। इस एक गुणरत्न की प्राप्ति होने के बाद अन्य गुणों को प्राप्त करना कठिन नहीं है ।
जिसे बहुमूल्य रत्न की प्राप्ति हो जाय उसके जीवन में दरिद्रता कहाँ से हो ?
शान्त सुधारस विवेचन-१०३