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जगत् के प्राणी ऋद्धिगारव, रसगारव और शातागारव से पीड़ित होकर परस्पर विवाद करते रहते हैं ।। १६६ ॥
विवेचन ऋद्धि-रस और शातागारव का त्याग करो
पूज्य उपाध्यायजी म. सद्धर्म-श्रवण की दुर्लभता का वर्णन करते हुए अपनी आत्मा को हो सम्बोधित करते हुए फरमाते हैं कि-हे आत्मन् ! इस विराट् संसार में चौरासी लाख जीवयोनियों में परिभ्रमण करते हुए तूने धर्म का श्रवण कहाँ किया है ?
अनादि संसार के अनन्त भवों में आत्मा में ऋद्धिगारव, रसगारव और शातागारव को बातें तो बहुत भवों में की हैं, परन्तु धर्म का श्रवण कहाँ किया है ?
यदि मनुष्य और देव भव का उत्तम जन्म भी मिला तो उन भवों में भो ऋद्ध, रस और शातागारव की ही बातें की हैं।
किस प्रकार से धन और वभव की प्राप्ति हो ? इसके लिए जीवात्मा ने विचार-विमर्श किया है।
किस प्रकार के भोजन में अधिक स्वाद पा सकता है ? इस प्रकार की बातें बहुत बार की हैं।
किस प्रकार से शरीर को नीरोग रखा जाय ? इस बात की चिन्ता अनेक भवों में की है। परन्तु धर्म का सम्यक् श्रवण ? किसी भव में नहीं किया।
शान्त सुधारस विवेचन-१०१