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के बोर्ड लगे रहते हैं, वैसे ही अधिकांश श्रोता एक कान से सुनते हैं और दूसरे कान से निकाल देते हैं। ऐसे श्रोताओं को धर्म का बोध कहाँ से हो ?
कदाचित् ध्यानपूर्वक धर्म का श्रवण कर भी लें तो भी अन्तरंग शत्रु, (काम, क्रोध, लोभ, मद, मान और हर्ष) राग, द्वेष आदि व्यक्ति को परेशान करते रहते हैं और उन शत्रुओं के वशीभूत आत्मा अपनी समस्त साधना को निष्फल बना देती है।
वर्षों तक संयम का पालन किया, परन्तु काम की वासना के कारण सम्भूतिमुनि सब हार गए और उन्होंने चक्रवर्ती बनने का निदान कर लिया।
वर्षों तक निर्मल चारित्र व तप का प्रासेवन किया, परन्तु विशाखानन्दी की मजाक को सहन नहीं कर सकने के कारण विश्वभूतिमुनि ने बलप्राप्ति के लिए निदान कर लिया। .
इस प्रकार धर्म का श्रवण होने के बाद भी अन्तरंग शत्रुओं के हमले से जोवात्मा पुनः पतन के गर्त में डूब जाती है। 0 चतुरशीतावहो योनिलक्षेष्वियं ,
क्व त्वयाकरिणता धर्मवार्ता । प्रायशो जगति जनता मिथो विवदते , .. ऋद्धिरसशातगुरुगौरवार्ता ॥ बुध्य० ॥ १६६ ।।
अर्थ-अहो प्रात्मन् ! चौरासी लाख जोवयोनि में भ्रमण करते हुए तूने धर्म की वार्ता कहाँ सुनी है ? अधिकांशतः
शान्त सुधारस विवेचन-१००