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धर्ममाकर्ण्य सम्बुध्य तत्रोद्यमं ,
कुर्वतो वैरिवर्गोऽन्तरङ्गः । रागढ षश्रमालस्यनिद्रादिको
बाधते निहतसुकृतप्रसङ्गः॥ बुध्य० ॥ १६८ ॥
अर्थ-धर्म का श्रवण करने के बाद धर्म में अच्छी तरह से उद्यम करने वाले को भी अन्तरंग-शत्रु वर्ग तथा राग, द्वेष, पालस्य तथा निद्रा आदि बाधा पहुँचाते रहते हैं और सुकृत के प्रसंग को नष्ट कर देते हैं ।। १६८ ।।
विवेचन धर्माचरण में उद्यम दुर्लभ है ___ कदाचित् पुण्ययोग से धर्मश्रवण का अवसर मिल जाय
और वह व्यक्ति धर्मश्रवण के लिए गुरु-सान्निध्य में पहुँच भी जाय, फिर भी वहाँ जाकर ध्यानपूर्वक धर्म का श्रवण करना उसके लिए दुर्लभ हो जाता है।
धर्म का श्रवण करते-करते या तो उसे नींद आने लगती है अथवा उसका मन कहीं बाहर ही परिभ्रमण कर रहा होता है । जब तक काया की स्थिरता और मन की एकाग्रतापूर्वक धर्म का श्रवण न हो, तब तक वह धर्मश्रवण लाभकारी नहीं बन पाता है।
किसी नगर में गुरु महाराज का चातुर्मास था। चातुर्मास में सेठ मगनभाई रोज प्रवचन सुनने के लिए आते थे और वे
शान्त सुधारस विवेचन-६८