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विविदिषायामपि श्रवणमतिदुर्लभं ,
धर्मशास्त्रस्य गुरुसन्निधाने । वितथविकथादितत्तद्रसावेशतो
विविधविक्षेपमलिनेऽवधाने, बुध्य० ॥ १६७ ॥ अर्थ-सद्धर्म की जिज्ञासा होने के बाद भी व्यर्थ ही विकथा प्रादि के रस से अनेक प्रकार के विक्षेत्रों से मन के मलिन होने से सद्गुरु के सान्निध्य में धर्मशास्त्र का श्रवण अत्यन्त दुर्लभ है ।। १६७ ।।
विवेचन धर्म का श्रवण दुर्लभ है
कदाचित् पुण्ययोग से धर्म-श्रवण की इच्छा हो भी जाय, फिर भी गुरु के सान्निध्य में रहकर धर्म-श्रवण करना अत्यन्त ही दुर्लभ है क्योंकि चार प्रकार की विकथाएँ जीवात्मा के मार्ग में बाधा पहुँचाती रहती हैं।
धर्मश्रवण की इच्छा हो जाय, फिर भी देशकथा, भक्त (भोजन) कथा, स्त्रीकथा और राजकथा के कारण व्यक्ति धर्मशास्त्र का श्रवण नहीं कर पाता है।
धर्मशास्त्र का श्रवण गुरुमुख से ही होना चाहिये । मात्र पुस्तक पढ़ लेने से शास्त्र के रहस्य समझ में नहीं प्रा सकते हैं। गुरुगम के बिना किया गया शास्त्राभ्यास इतना अधिक हितकारी नहीं बन पाता है, जितना गुरुगम से प्राप्त ज्ञान बनता है।
शान्त सुधारस विवेचन-६६