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बस । इसी प्रकार जिसने सम्यग्दर्शन रूपी रत्न को पा लिया है, उसके जीवन में गुण-दरिद्रता नहीं आ सकती है ।
बोघिरत्न तो सर्व गुणों का बीज भूत है । जिस प्रकार वट के एक बीज में विराट् वृक्ष छिपा हुआ है, उसी प्रकार इस 'बोध' गुरण गुरण रहे हुए हैं, जो आत्मा सम्यग्दर्शन गुरण को प्राप्त करती है उसके जीवन में प्रशम, संवेग, निर्वेद आदि उत्तम गुणों का वास होता है और उस आत्मा के गुरण निरन्तर बढ़ते जाते हैं ।
हे भव्यात्मन् ! तू शान्त प्रमृतरस का पान कर और श्रेष्ठ विनय की प्रसादी रूप बोधिरत्न का सेवन कर ।
शान्त अमृतरस के पान के द्वारा पूज्य उपाध्यायजी म. ने अपने ग्रन्थ का भी नाम निर्देश कर दिया है और 'श्रेष्ठ विनय की प्रसादी रूप' पद से ग्रन्थकार ने अपने नाम का भी निर्देश कर दिया है ।
वास्तव में, शान्तरस यह अमृतरस तुल्य है । जब अन्तरात्मा में कषायों की आग सर्वथा शान्त हो जाती है तभी आत्मा प्रथम रस के आनन्द का अनुभव कर सकती है ।
शान्त सुधारस विवेचन- १०४