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जिस प्रकार नदी का जल सतत समुद्र की ओर बह रहा है, उसी प्रकार हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण हमें जरावस्था और मृत्यु के समीप ले जा रहा है। अतः जब तक यौवनवय है, तब तक धर्म का आचरण कर ले।
वृद्धावस्था में शरीर जीर्ण हो जाएगा, आँखों की ज्योति मन्द हो जाएगी, पैर लड़खड़ाने लगेंगे, हाथ काँपने लगेंगे, सम्पूर्ण शरीर शिथिल हो जाएगा, ऐसी अवस्था में तू धर्म का आचरण कैसे कर सकेगा? अतः अभी से सावधान होकर धर्माचरण में प्रयत्नशील बन जा।
हे प्रौढ़ पुरुष ! जब तेरे पाँचों इन्द्रियों की पटुता है, वे अपने-अपने कार्य को करने में सक्षम हैं, तब तक तू धर्म के आचरण में क्रियाशील बन जा ।
हे बाल मुमुक्षु ! तू अपनी वय को लघु मानकर सद्धर्म के आचरण में प्रमाद मत कर। क्योंकि मृत्यु बाल, युवान और वृद्ध का भेद नहीं करती है, वह तो किसी समय, किसी को भी अपने शिकंजे में कस लेती है। अतः अपने जीवन की क्षणभंगुरता को समझकर धर्मकार्य में उद्यमशील बन जा। सच्चा बुद्धिमान् वही है जो प्राप्त अवसर का लाभ उठा लेता है।
तालाब फूट जाने के बाद उसके जल को रोकने के लिए क्या दीवार बनाई जा सकती है?
फिर तो 'अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत ।' सद्धर्म आचरण की शक्ति होते हुए भी यदि तू सावधान
शान्त सुधारस विवेचन-८६