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नहीं बनेगा तो अन्त में तुझे पछताना ही पड़ेगा और इस प्रकार पछताने से भी कुछ फायदा नहीं हो सकेगा।
विविधोपद्रवं देहमायुश्च क्षणभङ्गुरम् । कामालम्ब्य धृति मूढः स्वश्रेयसि विलम्ब्यते ॥१६२॥
(अनुष्टुप्)
अर्थ-यह देह रोगादि उपद्रवों से भरा हुआ है, आयुष्य क्षणभंगुर है, तो फिर किस वस्तु का आलम्बन लेकर मूढ़ जन अपने आत्म-हित में विलम्ब करते हैं ? ॥१६२ ॥
विवेचन प्रात्म-हित में विलम्ब मत करो
जो आत्माएँ बेपरवाह बनकर सद्धर्म की उपेक्षा कर रही हैं, उन आत्माओं के प्रति हृदय में दया रखकर कुछ कठोर शब्दों में ठपका देते हुए पूज्य उपाध्यायजी फरमाते हैं कि हे मूढ़ पात्मन् ! तू किसके भरोसे रहकर अपनी साधना में विलम्ब कर रहा है ?
जरा, विचार तो कर। तेरा देह अनेक प्रकार के रोगों, उपद्रवों से भरा हुआ है, किस समय कौन-सा रोग तुझ पर हमला कर देगा, कुछ कह नहीं सकते हैं।
इसके साथ ही तेरा प्रायुष्य भी तो क्षणभंगुर है । जल में उत्पन्न हुए बुलबुले की भाँति तेरे इस जीवन का कोई भरोसा नहीं है । तेरा आयुष्य भी सोपघाती है। किसी भी समय, किसी भी दुर्घटना से तेरे जीवन का अन्त पा सकता है। .
शान्त सुधारस विवेचन-८७