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चनिभोज्यादिरिव नरभवो दुर्लभो ,
भ्राम्यतां घोरसंसारकक्षे । बहुनिगोदादिकायस्थितिव्यायते ,
मोहमिथ्यात्वमुखचोरलक्षे, बध्य० ॥ १६४ ॥
अर्थ-निगोद आदि की दीर्घकाल स्थिति तथा मोह और मिथ्यात्व आदि लाखों चोरों से व्याप्त इस भयंकर संसार-कक्ष में चक्रवर्ती के भोजन के दृष्टान्त से मनुष्य-भव की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है ।। १६४ ।।
विवेचन
मनुष्यभव दुर्लभ है
इस विराट् संसार में प्रात्मा को नर-भव की प्राप्ति अत्यन्त ही दुर्लभ है । साधारण वनस्पतिकाय/निगोद के जीवों की कायस्थिति अनन्त उत्सपिरणी-अवसर्पिणी काल प्रमाण है । एक बार प्रात्मा निगोद में चली जाय तो फिर उसे ऊँचे उठने के लिए प्रायः कोई अवकाश ही नहीं रहता है। सूक्ष्म पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय और वायुकाय की कायस्थिति असंख्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल प्रमाण है, अतः उस स्थिति में से ऊपर उठने के लिए जीवात्मा को कोई साधन-सामग्री ही उपलब्ध नहीं होती है।
चक्रवर्ती के घर भोजन की तरह मनुष्य-जन्म की प्राप्ति दुर्लभ है।
शान्त सुधारस विवेचन-६०