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विभिन्न पंथ, कुयुक्तियों का जोर तथा देवों का नहीं आना आदि-आदि बातें सद्धर्मप्रेमी के लिए चुनौती रूप हैं।
वर्तमानकाल में भौतिकवाद की भी प्रांधी इतनी जोर से चल रही है कि उसमें मुमुक्षु आत्मा को अपनी साधना में स्थिर रहना अत्यन्त कठिन हो गया है ।
दिन-प्रतिदिन विज्ञान की नई-नई गवेषणाएँ, ऐशो-पाराम और भोग-विलास के नये-नये साधन व्यक्ति को सद्धर्म से च्युत कर देते हैं।
सद्धर्म के रक्षण के लिए चारों ओर संकट हैं, ऐसो परिस्थिति में भी जो व्यक्ति सद्धर्म में स्थिर है और वीतराग प्ररूपित मोक्षमार्ग की साधना में प्रयत्नशील है, वह व्यक्ति वास्तव में भाग्यशाली है।
अनुकूलताओं में धर्म करना तो सरल है, परन्तु अनेकविध प्रतिकूलताओं के बीच भी आत्म-स्वभाव में स्थिर बने रहना अत्यन्त ही कठिन कार्य है।
यावद् देहमिदं गदैर्न मुदितं, नो वा जरा जर्जरं, यावत्त्वक्षकदम्बकं स्वविषयज्ञानावगाहक्षमम् । यावच्चायुरभङ्गुरं निजहिते तावबुधैर्यत्यतां , कासारे स्फुटिते जले प्रचलिते पालिः कथं बध्यते ॥१६॥
(शार्दूलविक्रीडतम्) अर्थ-जब तक यह देह रोग-ग्रस्त नहीं हुआ है, जब तक यह देह जरा से जर्जरित नहीं बना है, जब तक इन्द्रियाँ स्व-स्व
शान्त सुधारस विवेचन-८४