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विभिन्नाः पन्थानः प्रतिपदमनल्पाश्च मतिनः , कुयुक्तिव्यासङ्गनिजनिजमतोल्लासरसिकाः । न देवाः सान्निध्यं विदधति न वा कोऽप्यतिशयस्तदेवं कालेऽस्मिन् य इह दृढधर्मा स सुकृती ॥१६०॥
(शिखरिणी)
अर्थ-इस काल में जहाँ स्थान-स्थान पर विविध मत वाले पंथ हैं, कदम-कदम पर कुयुक्ति के अभ्यास से स्वमत को विकसित करने में रसिक अनेक मतवादी हैं, देवता भी सहाय नहीं कर रहे हैं तथा न कोई अतिशय लब्धि-सम्पन्न व्यक्ति नजर आ रहा है, ऐसे समय में वीतराग धर्म में दृढ़ता रखने वाला ही सच्चा पुण्यात्मा है ।। १६० ।।
विवेचन धर्म में दृढ़ता कठिन कार्य है
पूज्यपाद उपाध्यायजी म. वर्तमानकालीन परिस्थितियों का वर्णन करते हुए बोधि के रक्षण की कठिनाइयों को बतलाते हुए फरमाते हैं कि इस समय धर्म के नाम पर अनेकविध पंथ और सम्प्रदाय चल रहे हैं।
एक-एक नय के एकांगी दृष्टिकोण में पूर्णता की कल्पना कर अनेकविध नये पंथ चल पड़े हैं। उन एकांगी दृष्टि वालों का इतना अधिक तांता लग गया है कि बालजीवों के लिए सत्य की परीक्षा करना अत्यन्त कठिन हो गया है। कोई मात्र ज्ञान से मुक्ति की बात करता है तो कोई मात्र ध्यान से ।
शान्त सुधारस विवेचन-८२