________________
निगोद के जीव निरन्तर जन्म-मरण की पीड़ा का अनुभव कर रहे हैं, अतः उन जीवों के आत्म-परिणामों की विशुद्धि कहाँ से हो सकती है ?
सूक्ष्मनिगोद से निकलने के बाद आत्मा बादरनिगोदावस्था को प्राप्त करती है और वहाँ से निकलने के बाद बादर पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय आदि अवस्था को प्राप्त करती है।
पृथ्वीकाय आदि जीवों की भी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल की है, अर्थात् इतने काल वे जीव उसी योनि (काय) में जन्म-मरण करते हैं ।
स्थावर पृथ्वीकाय के जीव भयंकर सर्दी-गर्मी आदि को सहन कर अकामनिर्जरा करते हैं, इस प्रकार निरन्तर वेदना को सहन करने के फलस्वरूप जीवात्मा सपने को प्राप्त होती है अर्थात् आत्मा बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय आदि अवस्था को प्राप्त करती है।
सपने में भी जीवात्मा को पंचेन्द्रिय अवस्था की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। ज्यों-ज्यों जीवात्मा के बेइन्द्रिय-तेइन्द्रिय आदि अवस्था में इन्द्रियों की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों उसमें पाप करने की शक्ति भी बढ़ती जाती है।
हिंसा, झूठ आदि पापों का प्रारम्भ आगे-आगे की अवस्थाओं में ही होता है। कदाचित् पुण्ययोग में पंचेन्द्रिय अवस्था मिल भी जाय, फिर भी उसमें मनुष्यत्व की प्राप्ति होना अत्यन्त ही दुर्लभ है। पंचेन्द्रिय तो गाय, भैंस, बिल्ली, कुत्ता, सिंह, व्याघ्र आदि भी हैं। उस प्रकार का जन्म मिलने पर तो जीवात्मा
शान्त सुधारस विवेचन-८०