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तदेतन्मनुष्यत्वमाप्यापि मूढो , महामोहमिथ्यात्वमायोपगूढः । भ्रमन् दूरमग्नो भवागाधगर्ने , पुनः क्व प्रपद्येत तद्बोधिरत्नम् ? ॥१५॥
" (भुजंगप्रयातम्) अर्थ-अनादिकाल से निगोद रूपी अन्ध कूप में रहने वाले और जन्म-मरण के दुःख से सतत, सन्तप्त जीवों को उस परिणाम की शुद्धि कहाँ से हो, जिससे वे निगोद के अन्ध कूप से बाहर निकल सकें ।। १५७ ।।
अर्थ-निगोद में से निकले हुए जीव स्थावर अवस्था को प्राप्त करते हैं, क्योंकि प्राणी को सत्व की प्राप्ति तो अत्यन्त दुर्लभ है उस सत्व की प्राप्ति के बाद भी पञ्चेन्द्रिय अवस्था, संज्ञित्व, दीर्घ आयुष्य तथा मनुष्यत्व की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है ।। १५८ ।।
अर्थ-मनुष्य अवस्था पाने के बाद भी महामोह मिथ्यात्व और माया से व्याप्त मूढ़ प्राणी संसार रूपी महागर्त में पड़ा हुप्रा, ऐसा निमग्न हो जाता है कि उसे बोधिरत्न की प्राप्ति भी कहाँ से हो ॥ १५६ ॥
विवेचन सम्यग्दर्शन की दुर्लभता
तीन गाथाओं के द्वारा पूज्य उपाध्यायजी म. बोधिरत्न की प्राप्ति की दुर्लभता बतलाते हैं ।
शान्त सुधारस विवेचन-७८