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अनन्त अलोक के आगे तो यह चौदह राजलोक भी सिन्धु में बिन्दु तुल्य ही है।
अनन्त अलोक के बीच यह लोक दीपक की भाँति सुशोभित है।
धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य लोकाकाश में ही विद्यमान हैं, अलोक में नहीं । अलोक में एकमात्र आकाश (Space) है।
मुक्तात्मा सदैव ऊर्ध्वगति करती है, परन्त उस गति में भी उसे धर्मास्तिकाय द्रव्य की सहायता रहती है। मुक्तात्मा चौदह राजलोक से ऊपर उठकर अलोक में नहीं जाती है, इसका एकमात्र कारण अलोक में धर्मास्तिकाय द्रव्य का अभाव है।
____ इस गाथा में ग्रन्थकार महर्षि ने पाँच द्रव्य बतलाए हैं। वे किसी विवक्षा से ही बतलाए गये हैं। कोई प्राचार्य काल को स्वतंत्र रूप में द्रव्य नहीं मानते हैं। उनके अभिप्राय को ध्यान में रखकर ग्रन्थकार ने लोक में पाँच द्रव्य बतलाए हैं।
लोक और अलोक में प्राकाश द्रव्य तो समान रूप से रहा हुआ है, परन्तु लोक और अलोक का भेद करने वाले ये धर्मास्तिकाय आदि पाँच द्रव्य ही हैं ।
ग्रन्थकार ने 'पञ्चभिरपि धर्मादिभिः' जो कहा है, उससे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल द्रव्य भी ले सकते हैं, क्योंकि ये पांच द्रव्य ही अलोक और लोक में भेद करने वाले हैं। ये पाँच द्रव्य ही लोक की सीमा को मर्यादित करते हैं ।
शान्त सुधारस विवेचन-६०