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ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है, जिसके साथ हमारी आत्मा ने कोई सांसारिक सम्बन्ध नहीं किया हो, अर्थात् हर आत्मा के साथ हमारा हर तरह का सम्बन्ध हुआ है।
इस संसार में ऐसा कोई पुद्गल-परमाणु नहीं है, जिसका हमारी आत्मा ने उपभोग नहीं किया हो। अनेक बार देवलोक के दिव्य सुखों का भी अनुभव किया है, फिर भी हम उन सुखों से तृप्त कहाँ हैं ?
समुद्र के खारे पानी को पीने से जैसे तृषा कभी शान्त नहीं होती है, बल्कि अधिक ही तीव्र बनती है, उसी प्रकार संसार के सुखों को भोगने पर भी प्रात्मा कभी तृप्त नहीं बनती है, बल्कि अधिकाधिक पाने की लालसा बढ़ती ही जाती है ।
आत्मा के इस संसार-परिभ्रमण का एकमात्र कारण हैममत्व । पंचसूत्र में भी कहा है-'ममत्तं बंधकारणम्'। ममत्व ही कर्मबन्ध का हेतु है। ममत्व से कर्म का बन्ध होता है और कर्मबन्ध से प्रात्मा जन्म-मरण के बन्धन से ग्रस्त बनती है। .
इह पर्यटनपराङ्मुखाः ,
प्रणमत भगवन्तम् । शान्तसुधारसपानतो ,
धृतविनयमवन्तम् ॥ विनय० ॥१५५ ॥ अर्थ-इस लोकाकाश में पर्यटन करने से श्रान्त बनी हे भव्यात्मानो! आप विनय से युक्त बनकर शान्त सुधारस का पान कर शरणदाता प्रभु को प्रणाम करो ।। १५५ ।।
शान्त सुधारस विवेचन-६९