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मनुष्य-जीवन की प्राप्ति के बाद भी जिनेश्वरदेव के धर्म के श्रवण का अवसर मिलना भी अत्यन्त दुर्लभ है ।
धर्म के श्रवण बिना उस धर्म की श्रद्धा या उस पर आचरण कैसे सम्भव है ?
महान् पुण्य का उदय होने पर ही जिन-धर्म के ' श्रवरण का अवसर मिल सकता है और जिनधर्म के श्रवण के बाद उस पर श्रद्धा होना, उससे भी दुष्कर है। जिनधर्म का श्रवण होने के बाद भी जब तक मोहनीय कर्म का क्षय-उपशम न हो जाय, तब तक उस धर्म की श्रद्धा होना शक्य नहीं है।
जब तक आत्मा पर लगी हुई कर्म-स्थिति का ह्रास नहीं हो जाता है, तब तक सम्यक्त्व की प्राप्ति सुलभ नहीं है।
सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए प्रात्मा तीन करण करती है(१) यथाप्रवृत्तिकरण (२) अपूर्वकरण और (३) अनिवृत्तिकरण।
(१) यथाप्रवत्तिकरण-जब प्रात्मा किसी भी प्रकार के कर्म का बन्ध करती है तो उसके साथ ही उस कर्म की स्थिति का भी बन्ध करती है।
मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ाकोड़ी सागरोपम है।
जब प्रात्मा अपने प्रयत्न विशेष से शुभ अध्यवसायों के द्वारा मोहनीय आदि कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को घटाकर उन कर्मों की
शान्त सुधारस विवेचन-७५