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ज्ञान और चारित्र का मूल भी सम्यग्दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व ही है। ज्ञान और चारित्र को सम्यग् बनाने वाला सम्यग्दर्शन ही है।
सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र का अस्तित्व नहीं रहता है। सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान भी मिथ्या ज्ञान हो जाता है और चारित्र भी मात्र कायकष्ट गिना जाता है।
अभव्य की आत्मा ६३ पूर्व तक का अभ्यास कर ले और मक्खी की पाँख को भी पीड़ा न पहुँचे, ऐसे चारित्र का पालन करे, फिर भी उस आत्मा का कल्याण नहीं होता है। ज्ञानियों ने उसके ६३ पूर्व के ज्ञान को भी अज्ञान ही माना है और उसके चारित्र को भी संसारवर्द्धक ही कहा है।
ज्ञान और चारित्र तभी तारक बनते हैं, जब उनके साथ सम्यग्दर्शन जुड़ा हुआ हो। __मोक्षमार्ग में विकास की सर्वप्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन ही है।
बोधिरत्न यह सम्यग्दर्शन-सम्यक्त्व का ही पर्यायवाची नाम है।
इस अनादि अनन्त संसार में जीवात्मा को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति अत्यन्त ही दुर्लभ है।
यह बोधिदुर्लभ भावना हमें सम्यक्त्व की दुर्लभता समझाती है।
शान्त सुधारस विवेचन-७३