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बोधिदुर्लभ भावना यस्माद् विस्मापयितसुमनः स्वर्गसम्पद्विलासाः , प्राप्तोल्लासाः पुनरपि जनिः सत्कुले भूरिभोगे । ब्रह्माद्वैत - प्रगुरणपदवीप्रापकं निःसपत्नं , तदुष्प्रापं भृशमुरुधियः सेव्यतां बोधिरत्नम् ॥१५६॥
(मंदाक्रान्ता) अर्थ-हे सूक्ष्मबुद्धिमान् पुरुषो! जिस सम्यक्त्व के प्रभाव से देवताओं को भी आश्चर्य हो, ऐसी स्वर्ग सम्पदा का विलास प्राप्त होता है और उस स्वर्ग सम्पत्ति को प्राप्ति से उल्लसित बने प्रारणी पुनः विशाल भोगकुल में जन्म पाते हैं, ऐसे असाधारण और परम पद को देने वाले बोधिरत्न की सेवा करो ॥१५६।।
विवेचन सम्यग् दर्शन की महत्ता
अनन्तज्ञानी सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवन्तों ने भव्य जीवों के हित के लिए मोक्षमार्ग की देशना दी है। वह मोक्षमार्ग 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र' स्वरूप है। इसे रत्नत्रयी भी कहते हैं।
शान्त सुधारस विवेचन-७२