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शान्त सुधारस अर्थात् अपनी आत्मा को कषायाग्नि से मुक्त कर प्रशमरस में निमग्न होना। कषायों की आग शान्त हए बिना प्रात्मा शान्त नहीं बन सकती है और शान्त हुए बिना आत्म-गुणों का विकास सम्भव नहीं है।
अनादिकाल के कुसंस्कारों के कारण आत्मा में क्रोधादि कषायों की प्राग रही हुई है, प्रशमरस के निरन्तर अभ्यास से ही उस आग को शान्त किया जा सकता है।
विनयवन्त और शान्तात्मा ही परमात्म-चरणों में अपना समर्पण कर सकती है।
जब तक हृदय में क्रोध और मान कषाय की प्रबलता रहेगी तब तक आत्मा प्रभु-चरणों में समर्पण नहीं कर सकेगी।
भव-बन्धन से मुक्त बनने के लिए भव-बन्धन से मुक्त परमात्मा के प्रति समर्पण अनिवार्य है।
परमात्मा राग-द्वेष के विजेता हैं और दूसरे को राग-द्वेष के विजेता बनाने वाले हैं। परमात्मा इस संसार-सागर से तीर्ण (तैर चुके) हैं और दूसरों को संसार-सागर से तिराने वाले हैं।
संसार के इस भीषण अन्धकार में एकमात्र परमेष्ठिनमस्कार हो एक ऐसी प्रकाश किरण है, जिसे प्राप्त कर प्रात्मा अपने कल्याण-मार्ग को पा सकती है।
शान्त सुधारस विवेचन-७१