________________
बहुपरिचितमनन्तशो ,
निखिलरपि सत्त्वः । जन्ममरणपरिवतिभिः ,
कृतमुक्तममत्वैः ॥विनय० ॥ १५४ ।। अर्थ-जन्म-मरण के चक्र में अनन्त बार भ्रमण करने वाले ममता से युक्त जीवों द्वारा यह (लोक) अत्यन्त परिचित है ।। १५४ ।।
विवेचन जीव और जगत् का सम्बन्ध
जैनदर्शन के अनुसार यह संसार अनादि है, इस संसार में जीव अनादि से है, जीव और कर्म का संयोग अनादि से है, मोक्ष अनादि है, मोक्ष का मार्ग अनादि है।
अनादि के साथ-साथ यह संसार अनन्त भी है। इसका न कोई प्रारम्भ है और न कोई अन्त ।
अपनी आत्मा भी इस संसार में अनादिकाल से है । अनादिकाल से ही अपनी आत्मा के साथ कर्म का संयोग है। कर्मसंयोग के कारण ही आत्मा का परिभ्रमण चल रहा है।
इस संसार से हम (हमारी आत्मा) अति परिचित हैं । इस संसार में ऐसा एक भी आकाशप्रदेश नहीं है, जिसका स्पर्श कर हमारी आत्मा ने जन्म और मरण नहीं किया हो। ऐसी एक भी योनि अथवा स्थान नहीं है, जहाँ हमारा जन्म-मरण नहीं हुआ हो।
शान्त सुधारस विवेचन-६८