________________
इस प्रकार इस 'केवलीसमुद्घात' द्वारा केवलज्ञानी आत्मा समस्त राजलोक-व्यापी बन जाती है ।
इस केवली-समुद्घात के प्रयोग द्वारा केवलज्ञानी प्रात्मा अपने नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की स्थिति को घटाकर आयुष्य कर्म के तुल्य बना देती है और उस आयुष्य की समाप्ति के साथ समस्त कर्मों का क्षय कर आत्मा शाश्वत अजर-अमर पद को प्राप्त कर लेती है।
इस लोकाकाश के जितने आकाश-प्रदेश हैं, उतने ही प्रात्मप्रदेश अपनी प्रात्मा के हैं। लोकाकाश और प्रात्मा के प्रदेशों की संख्या तुल्य है। कुल आकाश-प्रदेश और आत्म-प्रदेश असंख्य हैं।
यह लोकाकाश जीव और अजीव (पुद्गल) की विविध क्रियामों का मन्दिर है। जीव और अजीव के अनेक संयोगवियोग यहाँ होते रहते हैं। इस लोकाकाश में परमाणु भी सतत गतिशील हैं, उसके भावों में परिवर्तन प्राता रहता है। जीव की भी स्थिति सर्व काल समान नहीं है । उसकी भी पर्यायें, अवस्थाएँ प्रति समय बदलती रहती हैं ।
एकरूपमपि पुद्गलः ,
कृतविविधविवर्तम् । काञ्चनशैलशिखरोन्नतं ,
क्वचिदवनतगर्तम् ॥ विनय० ॥ १५१ ॥
शान्त सुधारस विवेचन-६३