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अल्प हो और वेदनीय, नाम व गोत्र कर्म की स्थिति अधिक हो तो उन्हें केवलोसमुद्घात करना पड़ता है।
केवलीसमुद्घात के द्वारा वेदनोय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति को कम किया जाता है। केवलज्ञानी अपने आयुष्य के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में केवलोसमुद्घात रूप विशेष प्रयोग करते हैं। इस प्रयोग में किसी भी प्रकार के कर्मों का बन्ध नहीं होता है, बल्कि कर्मों की निर्जरा ही होती है।
केवलीसमुद्घात का कुल काल आठ समय का है। इस समुदघात में केवलज्ञानी आत्मा के समस्त प्रात्मप्रदेश शरीर में से बाहर निकलते है और वे प्रदेश समस्त राजलोक में फैल जाते हैं जिनका क्रम इस प्रकार है
• प्रथम समय में केवलज्ञानी के स्वशरीर प्रमाण चौड़े और ऊर्ध्व-अधोलोक प्रमाण ऊँचे स्वात्मा की दण्डाकृति बनती है।
दूसरे समय में पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण प्रात्मा की कपाटाकृति बनती है।
तीसरे समय में आत्मा की मंथनाकृति बनती है। चौथे समय में आत्मा समग्र लोकव्यापी बन जाती है। अब पुनः संहरण की क्रिया प्रारम्भ होती है। पाँचवें समय में प्रात्मा मंथनाकृति में आ जाती है। छठे समय में आत्मा कपाटाकृति में आ जाती है । सातवें समय में प्रात्मा दण्डाकृति में आ जाती है और पाठवें समय में प्रात्मा पुनः स्वदेहस्थ हो जाती है।
शान्त सुधारस विवेचन-६२