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इस लोकाकाश में कहीं पर एक लाख योजन का स्वर्णिम मेरुपर्वत है, तो कहीं पर भयंकर द्रह भी हैं। कहीं पर वृत्ताकार रजतमय वैताढ्य पर्वत है तो कहीं पर अन्य पर्वत हैं।
मध्य लोक में असंख्य द्वीप और समुद्र पाए हुए हैं, ये द्वीप-समुद्र एक दूसरे से दुगुने-दुगुने व्यास वाले हैं ।
मनुष्य लोक में भी पर्वत, द्रह, वर्षधर क्षेत्र आदि की विविधताएँ हैं।
लोकाकाश में कहीं पर रत्नमण्डित विशाल विमान भी हैं। भवनपति, व्यन्तर आदि के निवास स्थान 'भवन' कहलाते हैं मौर वैमानिक देवों के निवासस्थान 'विमान' कहलाते हैं। देवतामों के ये निवासस्थल शाश्वत हैं। देवताओं के ये विमान रत्नमय होने से अत्यन्त प्रकाशमान हैं । वहाँ अन्धकार का नामोनिशान नहीं है। इन्द्रों की सौधर्म-सभा आदि का वर्णन इस कलम से अशक्य ही है।
मध्यलोक के नीचे अधोलोक आया हुआ है, जहाँ सात नरक हैं। वे नरकभूमियाँ अत्यन्त ही भयानक और रौद्र स्वरूप वाली हैं। कहीं-कहीं पर यह भूमि अत्यन्त ही उष्ण है तो कहीं पर अत्यन्त शीत ।
उन नरकों में नारकी जीव सतत भयंकर दुःखों से पीड़ित होते हैं। उनकी क्षुधा कभी तृप्त नहीं होती है।
भयंकर गर्मी से सन्तप्त होकर जब वे किसी वृक्ष की शीतल छाया का आश्रय करने जाते हैं, तो उन पर तीक्ष्ण बाणों के
सुधारस-५
शान्त सुधारस विवेचन-६५