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इस पृथ्वीतल से ७८० योजन ऊपर जाने पर ज्योतिष चक्र आता है। ये सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारे १२० योजन के अन्दर रहे हुए हैं।
लोकोऽथोवें ब्रह्मलोके धुलोके ,
यस्य व्याप्ती कूपरौ पञ्चरज्जू । लोकस्याऽन्तो विस्तृतो रज्जुमेकां , सिद्धज्योतिश्चित्रको यस्य मौलिः ॥ १४३ ॥
....(शालिनी) अर्थ-उसके ऊपर ब्रह्मदेवलोक तक पाँच राजलोकप्रमाण का भाग लोकपुरुष के विस्तृत दो हाथों की कोहनी समान है तथा एक राजलोक प्रमाण विस्तृत लोक के अन्त भाग में सिद्धशिला के प्रकाश से सुशोभित उसका मुकुट है ।। १४३ ।।
विवेचन ऊर्ध्वलोक का स्वरूप
ऊर्ध्वलोक-तिर्छालोक को पार करने के बाद असंख्य योजन ऊपर जाने पर सर्वप्रथम पहला और दूसरा वैमानिक देवलोक प्राता है, जिसे सौधर्म और ईशान देवलोक कहते हैं। इन देवों के निवास-स्थल विमान होने से वे वैमानिक कहलाते हैं। इनमें दो प्रकार की देवियाँ होती हैं-परिगृहीता और अपरिगृहीता। इन दो देवलोक में मनुष्यवत् मैथुन भी होता है। सौधर्म देवलोक में ३२ लाख और ईशान देवलोक में २८ लाख विमान हैं। सौधर्म देवलोक का जघन्य आयुष्य १ पल्योपम और उत्कृष्ट
शान्त सुधारस विवेचन-४६