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सिद्ध भगवंतों की जघन्य अवगाहना १ हाथ ८ अंगुल और उत्कृष्ट अवगाहना ३३३३ योजन है । यो वैशाखस्थानकस्थायिपादः ,
श्रोणीदेशे न्यस्त-हस्त-द्वयश्च । कालेऽनादौ शश्वदूर्ध्वमत्वाद् , बिभ्राणोऽपि श्रान्तमुद्रामखिन्नः ॥ १४४ ॥
(शालिनी) अर्थ-लोकपुरुष की स्थिति इस प्रकार है-वह समान रूप से फैलाए हुए पैर वाला, जिसके दोनों हाथ कटिप्रदेश पर रहे हुए हैं और अनादिकाल से जो ऊर्ध्वमुख किए, श्रान्त मुद्रा को धारण करके जो अखिन्न रूप से खड़ा है ।। १४४ ॥
विवेचन लोकपुरुष की आकृति
यह चौदह राजलोक प्रमाण लोक, लोक-पुरुष की भाँति है, जो अनादि काल से अश्रांत होकर खड़ा है, अनन्त काल तक इसका अस्तित्व बना रहेगा, फिर भी इसमें लेश भी परिवर्तन नहीं होगा।
दो पैरों को चौड़ा करके तथा दोनों हाथों को कटि पर लगाए हुए पुरुष की भाँति इस चौदह राजलोक की आकृति है। सातवीं नरक का विस्तीर्ण भाग सात राजलोक प्रमाण चौड़ा है। मध्य भाग में इसकी चौड़ाई कम हो जाती है और मात्र एक राजलोक प्रमाण रहती है। दोनों कुहनियों के स्थान के बीच ५
शान्त सुधारस विवेचन-५.