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जीव तत्त्व के संसारी और मुक्त आदि अन्य-२ अपेक्षाओं से अनेक भेद हैं। यह आत्मा अपने कर्म का कर्ता है, भोक्ता है तथा कर्म से मुक्त भी बन सकता है।
इस प्रकार यह लोक षड्द्रव्यों से बना हुआ है अथवा उनसे भरपूर है। चौदह राजलोक के चारों ओर अलोक पाया हुआ है, जिसका कोई अन्त ही नहीं है, जहाँ एकमात्र प्राकाश द्रव्य है।
रङ्गस्थानं पुद्गलानां नटानां ,
नानारूपै त्यतामात्मनां कालोद्योगस्व-स्वभावादिभावैः
कर्मातोचैनतितानां नियत्या ॥१४६ ॥ अर्थ-नियति, काल, उद्यम और स्वभाव आदि भावों से तथा कर्म रूपी वाद्य यंत्र की सहायता से अनेक रूपधारी नट की तरह जीव और पुद्गलों की यह रंगभूमि है ॥ १४६ ।।
विवेचन जीव और पुद्गलों की रंगभूमि
इस चौदह राजलोक में यह जीव नट की भाँति अनादि काल से नाच कर रहा है। नाना प्रकार के पुद्गलों के संग में आकर यह जीव अनेकविध नाटक खेल रहा है। यह चौदह राजलोक जीव और पुद्गल के नाच की रंगभूमि है। पुद्गल द्रव्य में भी प्रतिसमय परिवर्तन चालू है। कर्म के वशीभूत जीव में भी विविध परिवर्तन चालू ही हैं। कभी यह आत्मा
शान्त सुधारस विवेचन-५३